बात है मई, 2020 है:
आज मैं आपके सामने कोई उपलब्धि की बात करने नहीं आया हूँ कि हमारे अस्पताल, दुर्गावती अस्पताल, ने मीरा के इलाज में क्या सहयोग किया। बल्कि आज मैं बात करना चाहता हूँ एक ऐसे पहलू पर, जिस पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते—बीमारी के आर्थिक बोझ पर।
मीरा और उसका पति, जो गोरखपुर के बडहलगंज कस्बे में ठेला लगाते थे, एक सामान्य जीवन जी रहे थे। लेकिन दो साल पहले मीरा के पेट में अचानक दर्द हुआ। स्थानीय अस्पताल में उसका ऑपरेशन हुआ, परंतु उसे राहत नहीं मिली। कुछ समय बाद फिर से ऑपरेशन हुआ, मगर फिर भी आराम नहीं मिला। इसके बाद डॉक्टरों ने कैंसर की आशंका जताई, और तब से वृद्ध दंपत्ति लखनऊ और बनारस जैसे बड़े शहरों में इलाज के लिए चक्कर काटने लगे।
इस वृद्ध दंपत्ति की तीन बेटियाँ हैं, जिनकी शादी हो चुकी है। पहले ऑपरेशन में ही मीरा के सारे गहने बिक चुके थे, और परिवार के पास इलाज के लिए पैसे खत्म हो गए थे। तब उनकी बेटियों ने भी अपने गहने बेच दिए, परंतु यह भी इलाज के खर्चे के लिए पर्याप्त नहीं था। मजबूरी में परिवार ने 10% मासिक ब्याज पर कर्ज लेना शुरू किया। बिमारी का इलाज चल ही रहा था, और आगे और पैसों की ज़रूरत थी। आर्थिक तंगी इस हद तक बढ़ गई कि उन्होंने अपना घर बेचने का फ़ैसला तक ले लिया।
इसी बीच उन्हें आयुष्मान योजना के बारे में पता चला, जो भारत सरकार द्वारा संचालित एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य योजना है। हमने डिप्टी सीएमओ डॉ. एन. के. पांडे से अनुमति लेकर मीरा का निःशुल्क ऑपरेशन किया। ऑपरेशन सफल रहा और बीमारी से उसे राहत मिली, लेकिन जो कर्ज उनके सिर पर चढ़ चुका था, वो बीमारी से भी बड़ा बोझ बन चुका था। सूद की बेड़ियों से वो शायद कभी आज़ाद नहीं हो पाएगी।
यहां सवाल सिर्फ मीरा की बीमारी का नहीं है, बल्कि इस समाज की असफलता का भी है, जो बीमारी के साथ आने वाले आर्थिक बोझ को नज़रअंदाज करता है। जब एक मेहनतकश दंपत्ति, जो कभी अपने स्वाभिमान के साथ जीवन जी रहे थे, कर्ज के तले दब जाते हैं और अपना घर तक बेचने को मजबूर हो जाते हैं, तब यह समाज के लिए एक गंभीर चेतावनी है। यह दर्शाता है कि हम केवल घड़ियाली आंसू बहाने वाले बनकर रह गए हैं, जब हमारे पड़ोस में कोई मीरा आर्थिक तंगी से जूझते हुए अपना घर खो देती है।
हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम बीमारियों से जूझ रहे ऐसे परिवारों की आर्थिक मदद भी करें। केवल इलाज कर देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनके जीवन को फिर से पटरी पर लाने के लिए हमें उनके आर्थिक सहयोग के बारे में भी सोचना चाहिए। इसलिए, मैंने अपने सभी मित्रों से विनम्र निवेदन करके उसके अकाउंट में थोड़ी धनराशि जमा करवाई। इससे न केवल उसकी मदद हुई, बल्कि उसके आत्मसम्मान को भी ठेस भी नही पंहुचा।
मैं, डॉ. मनोज यादव, दुर्गावती हॉस्पिटल के इस अनुभव से यह महसूस करता हूँ कि हमें अपने समाज में आर्थिक सहयोग के प्रति भी जागरूकता फैलानी चाहिए। आइए, हम मिलकर इस मानवीय प्रयास में साथ दें और मीरा जैसे लोगों की मदद करें।
मीरा की कहानी केवल एक बीमार महिला की नहीं है, यह उस समाज की सच्चाई है जो आर्थिक संकट और बीमारी के बोझ से जूझने वाले परिवारों को अक्सर अकेला छोड़ देता है। सरकार की योजनाओं से चिकित्सा सहायता तो मिल जाती है, लेकिन कर्ज का दानव जीवन भर पीछा करता है। यह समय है कि हम सिर्फ संवेदना जताने के बजाय ठोस कदम उठाएं और ऐसे परिवारों की आर्थिक मदद के लिए आगे आएं। आपका छोटा सा योगदान मीरा जैसी महिलाओं के आत्मसम्मान और उनके उजड़े हुए सपनों को फिर से संजीवनी दे सकता है। समाज की असली ताकत तब दिखेगी, जब हम मिलकर इस आर्थिक जंजाल से उन्हें बाहर निकालने में मदद करेंगे।
धन्यवाद।